Monday, November 25, 2019



जनसत्ता कि ताकत पाकर
हिटलर तानाशाह हुआ,
जनसत्ता की खेल गोद में
नेपोलियन आबाद हुआ ।
जिस जनसत्ता के आगे
टूटा साम्राज्य ब्रितानी का
उस जनसत्ता को दे धोखा
मूर्ख वही, अभिमानी हा ।
कालचक्र कि बाह पकड़कर
युग भी समय बदलता है
राजनीति और लोकनीति का
चक्का चलता रहता है ।
अत्याचारी और निरंकुश
कुछ पल का मेहमान यहां
जीत सदैव उसी की होती
जनता का सम्मान जहां ।
राजनीति की क्रीड़ा खेलें
जो निर्जन कोठारो में
प्रजा खड़ी हो तीव्र रवि में
चले सभा अधियारो में
राजनीति हो, लोकनीति हो
सैन्य नीति हो, अर्थ नीति हो
मान्य प्रजा पर सब कुछ होता
धर्मनीति या फिर अनीति हो
भोगे प्रजा राज्य के कारण
फिर क्यों न प्रतिकार करे
धर्म स्थापना के निमित्त वह
दनुजो का संघार करे ।
कब तक यू ही क्रीड़ा होगी
कब तक ये होगा संघार
कभी धर्म का हर मानव से
क्या हो पाएगा संचार ।
उठो स्वार्थ से अपने ऊपर
कालचक्र यह देख रहा
तुम्हे अमिट मालूम होता
पर वह माटी में लेख रहा ।
चक्का आगे बढ़ते ही
माटी पे लिखा मिट जाएगा
बस वह इतिहास कहाएगा
जो लिख प्रस्तर पर जाएगा ।
जब सब कुछ ही मिट जाना है
कुछ कार्य तो करके जाना है
कुछ अंश स्वयं के शेष रहे
इतिहास को यह बतलाना है ।
सच्चाई अक्षुण्ण रहती है
क्योंकि सबसे प्रिय कहती है
होता जिससे कल्याण सदा
वो अमर युगों तक रहती है ।
शुभ पल रहते तस्वीरों में
दुर्घटना लोग भुलाते है
इस भांति बुरे उन कृत्यों को
इतिहास नहीं दोहराते है ।
मिलता अपयश, मिट जाती है
थाती धरती के दवारो से
है बात तुम्हे लघु  लगती जो
कहती गाथा हर वारो से
इसीलिए जरा से लाभ हानि
के लिए कुकृत्य रचाते हो
जन की ताकत है मिटी नहीं
तुम क्यों ये भूले जाते हो
जिस तरह धर्म भी लघुता में
पूजा आखिर ही जाता हैं
उस तरह अधर्म का अंश एक
भी दुत्कारा भी जाता हैं ।
जनता यदि मन में कोस रही
तो जीने का है अर्थ नहीं
यदि करती है सम्मान जरा
तो जीना तेरा व्यर्थ नहीं ।
-  प्रांशु वर्मा
लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश २६२८०२



तेरी याद मुझको ही आती हैं क्यों
मै कितनी भुलाने की कोशिश करूं
तू मुझको ही आके रुलाती है क्यों
वो तस्वीर तेरी, जो खो भी गई
मेरी आज तकदीर भी रो रही
न कोई है मेरा, सताती है क्यो
अकेले में आंसू बहाती है क्यों
मानता हूं, की चाहा था मैंने तुझे
तूने चाहा नहीं, फिर भी आती है क्यो
आज मुझको तू अपना बताती है क्यो
तोड़ कर शीशा, लब से लगाती है क्यो
तेरी याद, मुझको ही, आती है क्यो




तू हसता हैं नजरे मिलाता नहीं है
लाख कहकर भी, कुछ भी बताता नहीं है
है दिल में तेरे क्या,छिपाता ही रहता
तुझे तेरा साथी भी, भाता नहीं है ।
तुझे फ्रिक कितनी है, गैरो में मेरी
मेरे सामने फिर भी, आता नहीं है
करे दुश्मनी, तू तो कहता हैं दुश्मन
मगर दुश्मनी को निभाता नहीं है ।
तड़पती हैं नजरे, भुला जख्म सारे
भुला करके मुझको, तू जाता कहीं है
मुझे फैसला करना कितना है मुश्किल
तू दुश्मन है, दोस्त बताता नहीं है ।

प्रांशु वर्मा
लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश २६२८०२




मेरा स्नेह मुझे क्यों नहीं पाता हैं
हर बार कहीं दूर चला जाता हैं ।
मेरा वो दोस्त भी नहीं जो मेरी तरफ
बन के याचक बस वही गिड़गिड़ाता हैं ।
मै पुछता हुं तो मिलती है सिर्फ ख़ामोशी
उसे हर बात क्यों जाके वो बताता हैं
वो नाचीज़ लात मार देता फिर भी
उसकी हर बात पर वो क्यों इतराता हैं
एक दिन सब्र का टूट गया साया,
मैंने पूछा तुझे क्या मिलता है
जो जाता हैं
बोला मै क्यों जाऊंगा भला
खुद चल कर यो
वो खुद मुझे बुलाने आ जाता हैं।
कहता है, तेरा मालिक भले देखे न कभी
तू ही बस तब, बाकी रह जाता हैं ।
मेरा दोस्त मुझे अब भी याद आता है
प्रांशु वर्मा
लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश, २६२८०२




प्रकृति शिथिल ना हो जाए,
अतिशीत से ।
धधक उठे ना प्रतीहिंसा ,
मानव की तपती
प्रीत से ।
कुन्दित ना हो शक्ति,
सत्य की
प्रेम पूर्ण उत्कोचों से ।
कुचला जाय हृदय
भावना सुंदर,
मृत हो जाए ।
कृत्रिम प्रेम का,
तीव्र ज्वार
तट पर बढ़ता ही जाए ।
भाव करे भावों को उन्मत ।
ऐसा ना हो, मानव
तेरा भ्रम बढ़ता ही जाय ।
तेरा भाई बैठ गोद में,
मारण मंत्र सुनाए ।
- प्रांशु वर्मा




उर्दू जुबान हिंदी से मिलकर गुलजार हो गई या हिंदी जुबान की विचारो से भरी रूह को उर्दू ने मिठास ने भर दिया । कहना मुश्किल है । खुसरो साहब ने इन दारियो को जिस संगम पर मिलाया तो मानो ग़ज़ल और कविता के अंकुरो को पनपने के लिए नई जमीन मिल गई हो ।
ग़ज़ल हमेशा से हसीन दिलो कि आवाज़ रही है । शाम की रुखसत के बाद चाहे रात अपना शामियाना लगा रही हो या सुबह परिंदे बोल रहे हो।ग़ज़ल ने हर एक पल को जुबान में तब्दील किया है ।
खुसरो एक बेहरीन पेशकार थे उन्होंने अपनी जुबान को शेरो शायरी में तब्दील किया लेकिन ग़ज़ल को दरवारी रंगत रास नहीं आई । ग़ज़ल ने अपने तराने छोडे तो निजामुददीन औलिया की दरगाह ।ग़ज़ल का ये अंदाज़ सूफी जमीन को रास आया ।उसने वो कहा जितना शायद एक शायरी में मुमकिन नहीं ।
एक ग़ज़ल तकरीबन ५ से २५ शेरो की होती है जिसका हर मकता सुनने और कहने वाले दोनों को सुकून से भर देता है । शायरी जिनकी आवाज़ नहीं उन्हें ग़ज़ल फना कर देती है ।
ग़ज़ल में एक ओर जहां सूफी नगमे हैं वहीं दूसरी ओर अजीज हुस्न वालो के फसाने भी । एक तरफ ग़ज़ल तकलीफ भरे जेहन पर मरहम हैं तो दूसरी ओर उन्हीं जख्मों को कुरुदने वाला औजार भी ।
ग़ज़ल से पहले हिंदी जुबान में जिन गीतों की भरमार थी उन्हें गान कहते थे । दरवारी माहौल पर शायरी काबिज थी और शायरी काबिल लोगो की चीज है । फिर भला उसमे आम जनमानस की पसंद कया होगी ।
हालाकि ग़ज़ल और शायरी का बहुत गहरा रिश्ता है लेकिन ग़ज़ल के रूमानी और नए अंदाज़ ने लोगो को अपनी ओर खींचा । हुआ ये कि शायरी दरवारी समाज में फलती फूलती रही और ग़ज़ल ने लोगो के दिलो में जगह ले ली ।
एक तरह से देखा जाए तो ये मुश्किल नहीं जान पड़ता की हिंदी और उर्दू की आपसी रिश्ते को इस मुकाम तक लाने में जितना हाथ ग़ज़ल का है शायद शायरी का नहीं........



उसको देखा, पर ?

जाता हूं सबेरे नित्य,जहा समाप्त होती है
एक गुजरी शाम कि कहानी ।
ख़ामोशी खत्म हो जाती हैं झुरमुट से आती,
दिन की पहली किरण में ।
मुझे पता है नहीं जा सकते तुम,
रात को अपने बसेरे के आगन में ।
छोड़ कर उस झील के किनारे को,
जो हैं साक्षी उस अपूर्व समय का ।
तुम्हारी उस अपूर्व अव्यक्तत्ता को ,
सोचता कब से समझ पाने को ।
रात्रि की लंबी प्रतिक्षा ,
क्यों हो जाती हैं समाप्त मेरे आते हैं ।
आभासी मन के उतरते हुए ही,
ठंडे पानी में खो जाती हो तुम ।
उजाले में डुबते जा रहे,
सुबह के आखिरी तारे की तरह ।
कहीं यह मेरा भ्रम तो नहीं !



वीर आज हुंकार भरो
रण को हर योद्धा न पाता
तुम फिर क्यो प्रतिकार करो
वीर आज....….....।
महासमर है शत्रु प्रबल हैं
तुम भी निर्भय वार करो ,
एक एक पर बरस पड़ो
चंडी का तुम जयकार करो ,
विजय नाद मंडल में गुजे
ऐसा एक आघात  करो,
रिपु हो जाय अस्त व्यस्त
ऐसी गति से प्रतिहार करो,
वीर आज.......
रण में हर ले मृत्यु को,
क्या उसे मांगने जाएगा ,
लेकर के अबलम्ब काल का
मिलने उससे पाएगा, 
यदि ऐसा तू करे वीर,
तो वो तुझको धिक्कारेगी
किस गौरव में भर कर तुझको
योद्धा, प्रिए पुकारेगी
इसीलिए तुम आज सुंदरी का
रण में अभिसार करो ।
चली आय, लालयित होकर
ऐसा शोणित श्रृंगार करो ।
वीर आज हुंकार भरो ।



नव किरण, नव पुष्प, नव तृण
नव उषा का आगमन है,
कुंज, तट और वाटिका पर
रश्मियों का आवरण है,
नील के इस उच्च पट पर
विहग वृन्दो का गमन,
यह सब प्रकृति के हर्ष में
डूबे हुए मन का कथन है,
दूर से आती हुई वह
भास्कर की लाल रेखा ,
जीव के उल्लास और
उसकी निराशा का शमन है ,
खो चुका था जो प्रकाशित
जीवनी का अंश उत्तम ,
निशा में डूबा हुआ था
शांति मिश्रित व्यर्थ का श्रम ,
उसके फिर से भानु की
धारा में खोने का प्रक्रम है,
यह विलोपन दीप्त है
यह जीवनी का महत श्रम है ।



भूली अखियां आज निहारे
तेरी प्रीत न बिसरी मोहे
तू मोहे काहे बिसारे
भूली अखियां....!
दिन बीते आवे जो रतिया
नैना ना चंदा निहारे
कड़के बादल चमके बिजुरिया
मन हिचकोले खावे रे
तेरी आस बंधी रह जावे
पानी बिन जो जो मीन तपड़ती
मोहे तड़पाती आवे रे
भूली अखियां.....!
सब कहती अब कजरी आई
तोरे सजन न आए
छोड़ अगन वो किसकी खातिर
तोहे आज भुलाए
आ जा बदरी बरस मोरा
जियरा जलता जो जाय
मेरी तपन पिया तक ले जा
आकर मुझे दिखा रे
भूली अखियां आज निहारे ।



भूली सी पगडंडी मुझे जब मिल गई
पुछा जो उसने फिर मेरी बाते नई
एक तूफ़ान उठा, सरसराया, थम गया
मेरी आवाज़ देख गुजती बन के हवा,
उस हूक पे नज़रे तब टिकी ही रह गई
धधकती आग में अब राख बाकी ही रही
मेरी जिल्लत ने है पहना जो जामा शेर का
खुश्क दरिया में वो जिल्लत वह गई
सूखी आंखे नमी से भर गई
समझाऊं क्या मुझसे जो वह कह रही
मैं चीखता घुटता जेहन में रह गया
मेरी मंजिल अधूरी देखो फिर से रह गई
भूली सी पग डंडी......…   !


जनसत्ता कि ताकत पाकर हिटलर तानाशाह हुआ, जनसत्ता की खेल गोद में नेपोलियन आबाद हुआ । जिस जनसत्ता के आगे टूटा साम्राज्य ब्रितानी का...